प्रातः काल उठें स्नान करके बैठ जायें। चाय यदि लेना चाहें तो ले लें , बातें न करें। प्रातः काल बिल्कुल बातें न करें, बैठ जाएँ और ध्यान करें। इस समय दैवी किरणे आती हैं, और उसके पश्चात सूर्योदय होता है। पक्षी भी इसी प्रकार जागते हैं और पुष्प भी। सभी इन दिव्य किरणों से जागते हैं। आप भी यदि संवेदनशील हैं तो आप महसूस करेंगे की सुबह उठने से आप अपनी आयु से दस वर्ष छोटे लगेंगे। प्रातः काल जागना इतनी अच्छी चीज़ हैं, और फिर स्वतः ही आप रात को जल्दी सो जायेंगे। यह जागने के विषय मैं है , सोने के विषय मैं मुझे बताने की कोई आवश्यकता नहीं क्योंकि सो तो आप जायेंगे ही।
प्रातः काल आप केवल ध्यान करें। ध्यान मैं अपने को शांत करने का प्रयत्न करें। आँखें खोलकर मेरी फोटो को देखें और निश्चित रूप से अपने विचारों को शांत कर लें। विचारों को शांत करने के पश्चात ध्यान में जाएँ। विचारों को शांत करने के लिए "यीशु प्रार्थना " बहुत सहज चीज़ हैं क्योंकि विचारों की स्थिति आज्ञा स्थिति होती हैं। अतः प्रातः काल यीशु-प्रार्थना या श्री गणेशजी का मंत्र लेना याद रखें। दोनों एक ही बात है। आप ये भी कह सकते हैं, ''कि मैंने क्षमा किया। '' यह कार्य करता है और आप निर्विचार समाधि में चले जाते हैं। अब आप ध्यान करे। इस अवस्था से पहले ध्यान नहीं होता।
अतः सर्वप्रथम आप निर्विचार चेतना में चले जाएँ , तभी अध्यात्मिक उत्थान आरम्भ होता है। निर्विचारिता की अवस्था प्राप्त करने के पश्चात, इससे पहले नहीं। आपको यह जान लेना चाहिए, तार्किकता के स्तर पर आप सहजयोग में उन्नत नहीं हो सकते। अतः निर्विचार अवस्था में स्थापित होना पहली आवश्यकता है। अभी आपको महसूस होगा की किसी विशेष चक्र में रूकावट बनी हुई है , इसे भूल जाएँ, भुला दीजिये इसे।
अब आप समर्पण आरम्भ करें। कोई चक्र पकड़ रहा है तो आपको कहना चाहिए - "श्री माताजी मैं आपके प्रति समर्पित हूँ।"
अन्य विधियां अपनाने के स्थान पर आप केवल इतना कह दीजिये। यह समर्पण तर्कयुक्त नहीं होना चाहिए। तर्क युक्ति से अब भी यदि आप ये सोचते हैं कि "मुझे ऐसा क्यों कहना चाहिए " तो कहने का कोई लाभ न होगा। आपके हृदय मैं यदि पवित्रता औए प्रेम है तो यही सर्वोतम है। पावन प्रेम ही समर्पण है, अपनी सभी चिंताएँ अपनी माँ पर छोड़ दीजिये . .....।
फिर भी यदि कोई विचार आ रहे है या आपका कोई चक्र पकड़ रहा है तो बस समर्पण कर दें। आप देखोगे कि आपका चक्र साफ़ हो गया है। प्रातः काल आप इधर-उधर न होते रहें , अपने हाथों को भी बहुत अधिक न हिलाएं। आप देखोगे कि ध्यान से ही आपके अधिकतर चक्र साफ़ हो गए हैं। अपने ह्रदय को प्रेम से भरने का प्रयत्न करें और ह्रदय कि गहराई में अपने गुरु को विराजमान करने कि कोशिश करें। जब गुरु आपके ह्रदय में विराजमान हो जाएँ तो पूर्ण श्रद्धा और समर्पण के साथ उन्हें प्रणाम करें।
आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के पश्चात जो कुछ भी आप अपने मस्तिष्क से करते हैं वह मात्र कल्पना नहीं है। क्योंकि आपका मस्तिष्क, आपकी कल्पना सभी कुछ ज्योतिर्मय हो चुका है। अतः स्वयम को इस प्रकार बना लें कि अपने गुरु, अपनी माँ के श्री चरणों मैं नतमस्तक हो जाएँ। अब ध्यान-धारणा के लिए आवश्यक स्वभाव कि याचना करें। ध्यान- धारणा तभी होती है जब आपकी एकाकारिता परमात्मा से हो........।
- परम पूज्य श्री माताजी निर्मला देवी
(१९-०१-१९८४)💞
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